यमुनापार की तथाकथित दिल्ली की एक बिल्डिंग के तीसरे माले पर मैं और मेरा परिवार लटकता पाया जाता है।दिल्ली में परिवार के नाम पर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि मेरे अलावा मेरी प्रिय पत्नी और मेरा बेटा ही होगा।बिल्डिंग की सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते वक्त हमें खुद से ज्यादा भगवान पर भरोसा होता है। हम जमीन से अपने फ्लैट के दरवाजे तक या फिर फ्लैट से नीचे पहुंचने पर हर बार ऊपर वाले का शुक्रिया करते हैं।बिल्डिंग के दूरदर्शी मालिक ने पूरी कोशिश की है कि सूरज की पराबैगनी किरणें सीढ़ियां चढ़ते वक्त हमारे नाजुक बदन को नुकसान ना पहुंचा पाएं,इसलिए दिन में उतरते-चढ़ते वक्त कृत्रिम रोशनी का सहारा लेना पड़ता है। मैं दो कमरों के जिस फ्लैट में रहता हूं वहां के कुल क्षेत्रफल की ज्यादातर जगह इलेक्ट्रॉनिक आइटम और प्लास्टिक के डिब्बों ने घेर रखी है। मेरे परिवार के साइज जीरो इंसानी जिस्मों को यहां इतनी सतर्कता से हिलना-डुलना पड़ता है कि हम घर में ही रैंप पर कैटवॉक करते नजर आते हैं। जिनके मिलने से मन को सुकून मिले ऐसे लोगों की तादाद कम ही होती है और जो लोग आ भी जाते हैं उन्हें जल्दी से चाय-नाश्ता कराकर विदा करने के बुरे ख्याल मन में आते हैं। बचपन में अपने घर की छत से आसमान में कभी-कभार उड़ते हुए हवाईजहाज को देखते थे तो आश्चर्य और रोमांच से भर जाते थे। तब हम उसे चीलगाड़ी कहते थे। दिल्ली के आसमान में आज चील-कौओं से ज्यादा हवाईजहाज मंडराते नजर आते हैं। हम दिल्ली में रहते हुए भी उस वक्त खुद को थोड़ा खुशनसीब पाते हैं जब टेरेस पर खड़े होते ही अमलतास के पेड़ एक कतार में खड़े नजर आते हैं। नासा और इसरो के रॉकेटों ने चांद के दिल पर बार-बार जो चोट की है उससे आहत चांद भी अब यहां कुछ कम नजर आता है। यहां चांद देखने के लिए या तो किसी पार्क में जाना पड़ता है या फिर हिंदी खबरिया चैनलों पर दिखाया जाने वाले करवाचौथ के सालाना महोत्सव का इंतजार करना पड़ जाता है। अब तो पानी की कुछ बूंदें मिलने का पता चलने के बाद इंसानी अवैध कब्जे का डर चांद को और ज्यादा सताने लगा है। ठेठ गांव में पले-बढ़े मेरे जिस्म का भी अब पूरी तरह महानगरीकरण हो चुका है। जब से दुपहिया वाहन में पेट्रोल फूंकने की मेरी हैसियत हुई है मुझे आधा किलोमीटर पैदल चलना भी नागवार लगता है। पास स्थित दूध डेयरी पर भी अब बाइक से ही जाता हूं। कुल-मिलाकर मेरी पूरी कोशिश होती है कि हाथ-पैरों का दोलन जितना कम से कम हो उतना अच्छा। मेरे महानगरीकरण का एक और सूचकांक है जिस पर मैं इतरा सकता हूं। मुझे धीरे-धीरे वो सब बीमारियां मसलन तनाव,अनिद्रा,उच्च रक्तचाप घर कर रही हैं, जो एक अच्छे महानगरीय प्राणि के लिए जरूरी मानी जा सकती हैं। परिचितों को इन सबकी जानकारी देते वक्त दर्द से कराह रहा मेरा सीना थोड़ी देर के लिए ही सही गर्व से चौड़ा हो जाता है। बचपना मिट्टी-धूल में खेलते बीत गया, जवानी पारिवारिक मर्यादा में। उन दिनों चाहकर भी किसी खूबसूरत चीज पर नजर नहीं दौड़ाई। राजीव गांधी ने भले ही सैम पित्रोदा के साथ मिलकर दशकों पहले भारत में कंप्यूटर क्रांति ला दी लेकिन मैंने पहली बार जब इसे हाथ लगाया तो पहले प्यार की तरह लगा। अब ज्यादातर वक्त इन्ही महानुभाव के साथ गुजरता है। जब दिन-रात आंखें लड़ें तो मोहभंग भी जल्दी ही हो जाता है। इनके सामने घंटों लगातार बैठे रहने पर आंखें बार-बार जवाब देती हैं। वो बार-बार कहती हैं इससे ज्यादा खूबसूरत चीजें भी इस दुनिया में देखने लायक हैं।
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