Thursday 2 February 2012

कहां खो गई वो शब्दों की मिठास

उठो लाल अब आंखें खोलो,पानी लाई हूं मुंह धोलो
बीती रात कमल दल फूले,उनके ऊपर भंवरे झूले
चिड़ियां चहक उठीं पेड़ों पर,बहने लगी हवा अति सुंदर
नभ में प्यारी लाली छाई,फूल हंसे कलियां मुस्काईं
ऐसा सुंदर समय ना खोओ,मेरे प्यारे अब मत सोओ।
ये पंक्तियां पहली बार तब पढ़ीं,जब पहली बार पढ़ना सीखा। करीब तीस साल पहले गांव के सरकारी स्कूल की प्राथमिक कक्षा में जब ये पंक्तियां पढीं तो जीवनभर के लिए जुबां पर चढ़ गईं। बाल मन को तुरंत असर करने वाली सुबह की इससे अच्छी तस्वीर शायद ही पेश की जा सके। इन पांच पंक्तियों में सुबह का सुंदर नजारा तो है ही अपने बेटे के प्रति मां का दुलार,उसकी सीख भी है। बच्चों के मन को भाए,उनकी जुबां पर चढ़ जाए इसके लिए शब्दों का अच्छा चयन इस स्तर की पाठ्य पुस्तकों में बहुत जरूरी है लेकिन आज के महानगरीय निजी स्कूलों की नर्सरी की किताबों में ऐसा देखने को नहीं मिलता। इसकी एक बानगी देखिए।
आलू कचालू बेटा कहां गए थे
बंदर की झोपड़ी में सो रहे थे
बंदर ने लात मारी रो रहे थे
मम्मी ने प्यार किया हंस रहे थे
पापा ने पैसे दिए नाच रहे थे
मासूमों को सिखाने के लिए इससे बेतुकी,बेमतलब की पंक्तियां नहीं हो सकती। सरकारी स्कूल की वो किताब जो बच्चों की मानसिकता समझने वाले अच्छे लेखकों की रचनाएं थीं महज डेढ़ रुपए में मिलती थी। आज महानगरीय स्कूलों में नर्सरी की ये चिकने जिल्द वाली किताब की कीमत डेढ़ सौ रुपए हैं। साफ है निजी स्कूलों में बच्चों के लिए स्तरीय पाठ्य सामग्री नहीं बल्कि फायदा पहली प्राथमिकता है।
इन किताबों की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले महान लेखक-प्रकाशक भी अंग्रेजी मानसिकता से ग्रस्त लगते हैं जो हिंदी की किताबों में अंग्रेजी राइम्स को अनुवाद कर छाप रहे हैं। निजी स्कूलों में जहां बच्चों को हिंदी में बात करने पर सजा दी जाती हो उनसे किसी तरह की उम्मीद करना भी बेईमानी है। कुल मिलाकर पूरी कोशिश है कि ना बच्चे की इस तरह की भाषा में कोई रुचि होगी ना वो सीखने की कोशिश करेगा। लगता है अधिकतर निजी स्कूल केवल दिखावे के लिए हिंदी को ढो रहे हैं। अब सरकारी स्कूल की किताब की कुछ और पंक्तियां पढ़िए
हठ कर बैठा चांद एक दिन,माता से ये बोला
मां सिलवा दो मुझे ऊन का, मोटा एक झंगोला
सन-सन चलती हवा रात भर जाड़े से मैं मरता हूं
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह से,यात्रा पूरी करता हूं।
इन पंक्तियों में बाल हठ है अपनी बुनियादी जरूरत के लिए। जाड़े का ऐसा वर्णन कि पंक्तियां पढ़ते ही ठिठुरन होने लगे और चांद के लगातार चलते रहने की कहानी से कभी ना थकने की सीख। स्कूलों में आज पढ़ाई जा रहीं किताबों के प्रकाशक-लेखक क्या कुछ ऐसा रचेंगे कि पांच साल में पढ़ी हुई किसी रचना को बच्चा अपने बेटे-पोतों को सुना पाए,मरते दम तक याद रख पाए।

Wednesday 2 November 2011

पिताजी के बिना दिवाली

जब से होश संभाला कभी ऐसा मौका नहीं आया कि दिवाली की पूजा पर पिताजी घर पर नहीं रहे हों। छुटपन से लेकर इससे पहले कि दिवाली पर अगर घर पर रहा तो पूजा की आसनी पर पिताजी को ही देखा। इस बार ये दिवाली की पहली पूजा थी जो कुदरत की सच्चाइयों से रूबरू करा रही थी। घर का हर सदस्य मौजूद था लेकिन पूजा की आसनी पर इस बार नहीं थे तो पिताजी। पढ़ाई पूरी करने के बाद जब से जिंदगी की भागमभाग में शामिल हुआ तब से दिवाली पर घर जाने का मौका ही कम मिला लेकिन इस मौके पर जब भी घर पहुंचा तो एक नई ऊर्जा और उत्साह लेकर लौटा।
इस बार की दिवाली पर ना पहले जैसी रंगत थी और और ना कोई उत्साह। घर में एक अजीब तरह की खामोशी और सन्नाटा था। दीवारों पर सफेदी तो थी लेकिन उनमें पहले जैसी चमक नहीं। हर बार नए रंग-रोगन से लिखी जाने वाली सुराती इस बार नहीं लिखी गई थी। उसके रंग फीके पड़ चुके थे। पहले की तरह दिये तो सोलह ही थी लेकिन वो रोशनी नहीं जो हर बार हुआ करती थी। वो एक-एक पल याद रहा था जब पिताजी पूरे विधि-विधान से पूजा करते थे। कलश जलाने से लेकर,हवन और आरती तक उनकी पूजा को सब लोग एकटक देखते थे। सुर-संगीत के वे कोई बड़े जानकार नहीं थे लेकिन बुलंद आवाज में श्लोक और आरती के सुर एक अलौकिक अहसास कराते थे। गुड़ में सिक्कों को चिपकाकर लक्ष्मी पूजन और फिर लाई का लुटाना आज बार-बार याद आ रहा था। लक्ष्मी पूजन के बाद गौ-माता की पूजा के लिए पिताजी के साथ सब लोग गाय वाले घर जाते और उनकी तिलक लगाकर पूजा-अर्चना करते,उन्हें खाना खिलाते। दिवाली की पूजा के बाद घर का कोई ऐसा कोना नहीं छोड़ा जाता था कि जहां दिये की रोशनी से जगमग ना हो।
बचपन की दिवाली आज इतनी याद आ रही थी कि इससे पहले कभी इतना याद नहीं किया था। दिवाली की छुटटियों में हम करीब पखवाड़े पहले ही घर पहुंच जाते थे। घर चूंकि बहुत बड़ा था इसलिए पुताई ज्यादा होती थी,अम्मा दीदी के हाथ चूने से ना जलें इसके लिए जब भी घर जाते सर्जिकल ग्लब्स ले जाना पहली प्राथमिकता में होता। करीब एक क्विंटल चूना और मिलाप के रंग के दर्जनों डिब्बों से पंद्रह दिन तक पुताई चलती थी। चूंकि गांव में मजदूर पुताई का काम उतने करीने से नहीं करते इसलिए घर के ज्यादातर लोग सुबह से ही पुताई में लग जाते थे और कोई एक जन रसोई संभालता। एक बार जमकर नाश्ता होने के बाद सब लोग शाम को नहाकर ही खाना खाते थे।
मेरे जिम्मे हर कमरे की तस्वीरें उतारकर उन्हें साफ कर उनकी जगह पर टांगना होता था। इसके अलावा हर अलमारी में रखी ढेरों किताबों पत्र-पत्रिकाओं की धूल को झड़ाकर उन्हें करीने से जमाना होता था, जिनमें पिताजी की पसंदीदा गीताप्रेस गोरखपुर के कल्याण,अखंड ज्योति,युग निर्माण योजना,विवेक ज्योति,शिक्षक बंधु, अलीगढ़ की प्रतियां ज्यादा होती थीं। साफ-सफाई के दौरान कई बार ऐसी चीजें हाथ लग जाती थीं जिससे बीते हुए लम्हें याद आ जाते और खुद पर हंसी भी आती। पहले-दूसरे दर्जे की कॉपी, किताबें,पिताजी की डायरियों में हर पेज पर लिखा अपना नाम और कक्षा,दोस्तों के नाम आदि। पुत-लिपकर दिवाली के दिन जो घर जगमगाता था पूरे गांव में उसके चर्चे होते थे।
इस बार कई सालों बाद दिवाली पर घर जाने का मौका मिला लेकिन पिताजी के बिना बीती इस दिवाली ने अहसास कराया कि उनके होने का क्या मतलब था। पिताजी हमारे लिए एक बरगद के पेड़ की तरह थे जो इस उम्र में भी इतनी छाया दे रहे थे कि पूरा परिवार उसकी ठंडक महसूस कर रहा था।
दुनिया जिसे कहते हैं मिट्टी का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है..खो जाए तो सोना है
-जगजीत सिंह की गाई एक नज़्म

Saturday 23 July 2011

आप भी बनिए अव्वल चापलूस!


अगर आप ईमानदार किस्म के शख्स हैं और पूरी शिद्दत के साथ केवल अपने काम में लगे रहते हैं, तो आप सबसे बड़े वेबकूफ हैं। बिना चाटुकारिता के केवल काम में जुटे रहना आपकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो सकता है। अपने इस गलत व्यवहार की वजह से आपको कई तरह की परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है। मसलन अगर आप चौबीस घंटे वाले किसी जॉब में हैं तो आपको जानबूझकर उस शिफ्ट में बुलाया जा सकता है जो आपको मोस्ट अनस्यूटेबल हो, आपको अचानक ऐसे किसी नए काम की जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है जो इससे पहले कभी किया ना हो। इसके पीछे की मंशा साफ है, आपको नया काम करने में भरपूर परेशानी हो, बौखलाहट में आप गलतियां करें जिससे आपको नीचा दिखाने का मौका मिल सके। अगर आप शांत स्वभाव के धैर्यवान शख्स हैं तो आपको अपने धैर्य की बार-बार परीक्षा देनी होगी। अगर आप पर बीवी-बच्चों की जिम्मेदारी हैं और नौकरी करना आपकी मजबूरी है तो चापलूसी की अच्छी आदत आपको डालनी होगी। अगर आप ऐसा नहीं करते तो मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के नए उपायों को आप पर आजमाया जा सकता है। मसलन पहले से चाटुकार गिरोह में शामिल नाकाबिल लोगों को आपके मुकाबले जिम्मेदारियों और ओहदों के हिसाब से प्रमोट किया जा सकता है, भले ही ऐसे लोगों की अक्लमंदी पर पहले से सवाल उठते रहे हों। चाटुकार ना होने की गलती आप की जेब पर भी भारी पड़ सकती है, इंक्रीमेट के समय आपको केवल सांत्वना पुरस्कार से ही काम चलाना पड़ सकता है। चाटुकार होने का एक और फायदा ये है कि पूरे ऑफिस में आपको ये पूछने वाला कोई माई का लाल नहीं कि आप कब आए, कब गए,क्या किया। सिरमौर बने रहकर भी आप ऐसी जिम्मेदारियों से बचे रह सकते हैं जिसमें जरा सी भी जवाबदेही हो। बॉस के आसपास मंडराते देखकर बाकी लोग भी बॉस का खास मानकर आप से किसी तरह का सवाल करने की हिम्मत नहीं जुटा सकते।

अच्छे चाटुकार बनने के तरीकों पर भी नजर डाल लेते हैं। ऑफिस आने के सबसे पहले बॉस के आगे-पीछे अपनी दुम हिलाते रहिए। बॉस अगर अपने कैबिन में नहीं भी है तो उसे साक्षी मानते हुए अपना निर्धारित समय खाली कैबिन में ही बिताइए। बॉस अगर कैबिन में है तो सबसे पहले अपने-अपने काम में तन्मयता से लगे लोगों की चुगली भिड़ाइए। उनकी मानवीय भूलों को बढ़ा-चढ़ाकर बताइए और अपने नंबरों में इजाफा करिए। बॉस को कुछ ऐसा आइडिया दीजिए जो चुराया हुआ तो हो लेकिन अब तक बॉस की नजरों में ना आया हो। इस बात का ख्याल रखिए कि इस आइडिया को इंप्लीमेंट कराने की जिम्मेदारी ऐसे शख्स को दिलवाइए जिसे निपटाने की आपने सोच रखी है। बॉस की कैबिन के सामने ही अपनी कुर्सी डालिए ताकि जितनी देर बॉस कैबिन में रहें आप उतनी देर तक काम करते दिखें। बॉस के साथ चाय पीजिए,लंच करिए,वो भी अपनी प्यारी बीवी के हाथों से बनवाकर लाइए। इस लंच के दौरान भी आपको चुगली का पर्याप्त समय मिल जाएगा। बॉस के बीवी-बच्चो से लेकर दादा-परदादा और पूरे खानदान का हालचाल पूछिए। कुल मिलाकर इमोशनल ब्लैकमेलिंग का हर वो तरीका अपनाइए जिसमें आपका फायदा दिखे। अपनी बीवी-बच्चो,दूसरे घरवालों,रिश्तेदारों के बर्थ डे,मैरिज डे पर उन्हें विश करें या ना करें बॉस से जुड़ी हर ऐतिहासिक तिथि को अपने मोबाइल की मेमोरी बुक में सेव करके रखें। ऐसे हर ऐतिहासिक मौके पर मोबाइल संदेश भेजकर एक रुपए का लॉंग टर्म इनवेस्टमेंट करें,शेयर सूचकांक का भले ही बुरा हाल हो ये एक रुपए का निवेश आपके लिए जबरदस्त फायदे का सौदा साबित होने वाला है। किसी तरह तिकड़म बिठाकर कोशिश करिए कि बॉस के वीकली ऑफ के दिन ही आपका वीकली ऑफ भी हो ताकि एक दिन भी आप बॉस की नजरों से ओझल ना रहें। इसलिए अगर आप चापलूस और चाटुकार नहीं हैं तो जल्दी करिए,इन उपायों पर अमल करिए और अच्छे चापलूस बनकर ढेर सारी सहूलियतों का एक साथ बंपर फायदा उठाइए।

Sunday 17 July 2011

मेरा महानगरीकरण

यमुनापार की तथाकथित दिल्ली की एक बिल्डिंग के तीसरे माले पर मैं और मेरा परिवार लटकता पाया जाता है।दिल्ली में परिवार के नाम पर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि मेरे अलावा मेरी प्रिय पत्नी और मेरा बेटा ही होगा।बिल्डिंग की सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते वक्त हमें खुद से ज्यादा भगवान पर भरोसा होता है। हम जमीन से अपने फ्लैट के दरवाजे तक या फिर फ्लैट से नीचे पहुंचने पर हर बार ऊपर वाले का शुक्रिया करते हैं।बिल्डिंग के दूरदर्शी मालिक ने पूरी कोशिश की है कि सूरज की पराबैगनी किरणें सीढ़ियां चढ़ते वक्त हमारे नाजुक बदन को नुकसान ना पहुंचा पाएं,इसलिए दिन में उतरते-चढ़ते वक्त कृत्रिम रोशनी का सहारा लेना पड़ता है। मैं दो कमरों के जिस फ्लैट में रहता हूं वहां के कुल क्षेत्रफल की ज्यादातर जगह इलेक्ट्रॉनिक आइटम और प्लास्टिक के डिब्बों ने घेर रखी है। मेरे परिवार के साइज जीरो इंसानी जिस्मों को यहां इतनी सतर्कता से हिलना-डुलना पड़ता है कि हम घर में ही रैंप पर कैटवॉक करते नजर आते हैं। जिनके मिलने से मन को सुकून मिले ऐसे लोगों की तादाद कम ही होती है और जो लोग आ भी जाते हैं उन्हें जल्दी से चाय-नाश्ता कराकर विदा करने के बुरे ख्याल मन में आते हैं। बचपन में अपने घर की छत से आसमान में कभी-कभार उड़ते हुए हवाईजहाज को देखते थे तो आश्चर्य और रोमांच से भर जाते थे। तब हम उसे चीलगाड़ी कहते थे। दिल्ली के आसमान में आज चील-कौओं से ज्यादा हवाईजहाज मंडराते नजर आते हैं। हम दिल्ली में रहते हुए भी उस वक्त खुद को थोड़ा खुशनसीब पाते हैं जब टेरेस पर खड़े होते ही अमलतास के पेड़ एक कतार में खड़े नजर आते हैं। नासा और इसरो के रॉकेटों ने चांद के दिल पर बार-बार जो चोट की है उससे आहत चांद भी अब यहां कुछ कम नजर आता है। यहां चांद देखने के लिए या तो किसी पार्क में जाना पड़ता है या फिर हिंदी खबरिया चैनलों पर दिखाया जाने वाले करवाचौथ के सालाना महोत्सव का इंतजार करना पड़ जाता है। अब तो पानी की कुछ बूंदें मिलने का पता चलने के बाद इंसानी अवैध कब्जे का डर चांद को और ज्यादा सताने लगा है। ठेठ गांव में पले-बढ़े मेरे जिस्म का भी अब पूरी तरह महानगरीकरण हो चुका है। जब से दुपहिया वाहन में पेट्रोल फूंकने की मेरी हैसियत हुई है मुझे आधा किलोमीटर पैदल चलना भी नागवार लगता है। पास स्थित दूध डेयरी पर भी अब बाइक से ही जाता हूं। कुल-मिलाकर मेरी पूरी कोशिश होती है कि हाथ-पैरों का दोलन जितना कम से कम हो उतना अच्छा। मेरे महानगरीकरण का एक और सूचकांक है जिस पर मैं इतरा सकता हूं। मुझे धीरे-धीरे वो सब बीमारियां मसलन तनाव,अनिद्रा,उच्च रक्तचाप घर कर रही हैं, जो एक अच्छे महानगरीय प्राणि के लिए जरूरी मानी जा सकती हैं। परिचितों को इन सबकी जानकारी देते वक्त दर्द से कराह रहा मेरा सीना थोड़ी देर के लिए ही सही गर्व से चौड़ा हो जाता है। बचपना मिट्टी-धूल में खेलते बीत गया, जवानी पारिवारिक मर्यादा में। न दिनों चाहकर भी किसी खूबसूरत चीज पर नजर नहीं दौड़ाई। राजीव गांधी ने भले ही सैम पित्रोदा के साथ मिलकर दशकों पहले भारत में कंप्यूटर क्रांति ला दी लेकिन मैंने पहली बार जब इसे हाथ लगाया तो पहले प्यार की तरह लगा। अब ज्यादातर वक्त इन्ही महानुभाव के साथ गुजरता है। जब दिन-रात आंखें लड़ें तो मोहभंग भी जल्दी ही हो जाता है। इनके सामने घंटों लगातार बैठे रहने पर आंखें बार-बार जवाब देती हैं। वो बार-बार कहती हैं इससे ज्यादा खूबसूरत चीजें भी इस दुनिया में देखने लायक हैं।