Wednesday 2 November 2011

पिताजी के बिना दिवाली

जब से होश संभाला कभी ऐसा मौका नहीं आया कि दिवाली की पूजा पर पिताजी घर पर नहीं रहे हों। छुटपन से लेकर इससे पहले कि दिवाली पर अगर घर पर रहा तो पूजा की आसनी पर पिताजी को ही देखा। इस बार ये दिवाली की पहली पूजा थी जो कुदरत की सच्चाइयों से रूबरू करा रही थी। घर का हर सदस्य मौजूद था लेकिन पूजा की आसनी पर इस बार नहीं थे तो पिताजी। पढ़ाई पूरी करने के बाद जब से जिंदगी की भागमभाग में शामिल हुआ तब से दिवाली पर घर जाने का मौका ही कम मिला लेकिन इस मौके पर जब भी घर पहुंचा तो एक नई ऊर्जा और उत्साह लेकर लौटा।
इस बार की दिवाली पर ना पहले जैसी रंगत थी और और ना कोई उत्साह। घर में एक अजीब तरह की खामोशी और सन्नाटा था। दीवारों पर सफेदी तो थी लेकिन उनमें पहले जैसी चमक नहीं। हर बार नए रंग-रोगन से लिखी जाने वाली सुराती इस बार नहीं लिखी गई थी। उसके रंग फीके पड़ चुके थे। पहले की तरह दिये तो सोलह ही थी लेकिन वो रोशनी नहीं जो हर बार हुआ करती थी। वो एक-एक पल याद रहा था जब पिताजी पूरे विधि-विधान से पूजा करते थे। कलश जलाने से लेकर,हवन और आरती तक उनकी पूजा को सब लोग एकटक देखते थे। सुर-संगीत के वे कोई बड़े जानकार नहीं थे लेकिन बुलंद आवाज में श्लोक और आरती के सुर एक अलौकिक अहसास कराते थे। गुड़ में सिक्कों को चिपकाकर लक्ष्मी पूजन और फिर लाई का लुटाना आज बार-बार याद आ रहा था। लक्ष्मी पूजन के बाद गौ-माता की पूजा के लिए पिताजी के साथ सब लोग गाय वाले घर जाते और उनकी तिलक लगाकर पूजा-अर्चना करते,उन्हें खाना खिलाते। दिवाली की पूजा के बाद घर का कोई ऐसा कोना नहीं छोड़ा जाता था कि जहां दिये की रोशनी से जगमग ना हो।
बचपन की दिवाली आज इतनी याद आ रही थी कि इससे पहले कभी इतना याद नहीं किया था। दिवाली की छुटटियों में हम करीब पखवाड़े पहले ही घर पहुंच जाते थे। घर चूंकि बहुत बड़ा था इसलिए पुताई ज्यादा होती थी,अम्मा दीदी के हाथ चूने से ना जलें इसके लिए जब भी घर जाते सर्जिकल ग्लब्स ले जाना पहली प्राथमिकता में होता। करीब एक क्विंटल चूना और मिलाप के रंग के दर्जनों डिब्बों से पंद्रह दिन तक पुताई चलती थी। चूंकि गांव में मजदूर पुताई का काम उतने करीने से नहीं करते इसलिए घर के ज्यादातर लोग सुबह से ही पुताई में लग जाते थे और कोई एक जन रसोई संभालता। एक बार जमकर नाश्ता होने के बाद सब लोग शाम को नहाकर ही खाना खाते थे।
मेरे जिम्मे हर कमरे की तस्वीरें उतारकर उन्हें साफ कर उनकी जगह पर टांगना होता था। इसके अलावा हर अलमारी में रखी ढेरों किताबों पत्र-पत्रिकाओं की धूल को झड़ाकर उन्हें करीने से जमाना होता था, जिनमें पिताजी की पसंदीदा गीताप्रेस गोरखपुर के कल्याण,अखंड ज्योति,युग निर्माण योजना,विवेक ज्योति,शिक्षक बंधु, अलीगढ़ की प्रतियां ज्यादा होती थीं। साफ-सफाई के दौरान कई बार ऐसी चीजें हाथ लग जाती थीं जिससे बीते हुए लम्हें याद आ जाते और खुद पर हंसी भी आती। पहले-दूसरे दर्जे की कॉपी, किताबें,पिताजी की डायरियों में हर पेज पर लिखा अपना नाम और कक्षा,दोस्तों के नाम आदि। पुत-लिपकर दिवाली के दिन जो घर जगमगाता था पूरे गांव में उसके चर्चे होते थे।
इस बार कई सालों बाद दिवाली पर घर जाने का मौका मिला लेकिन पिताजी के बिना बीती इस दिवाली ने अहसास कराया कि उनके होने का क्या मतलब था। पिताजी हमारे लिए एक बरगद के पेड़ की तरह थे जो इस उम्र में भी इतनी छाया दे रहे थे कि पूरा परिवार उसकी ठंडक महसूस कर रहा था।
दुनिया जिसे कहते हैं मिट्टी का खिलौना है
मिल जाए तो मिट्टी है..खो जाए तो सोना है
-जगजीत सिंह की गाई एक नज़्म

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